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कविता

संगाती

भवानीप्रसाद मिश्र


नहीं
रामचरण नहीं था
न मदन था न रामस्वरूप

कोई और था
उस दिन
मेरे साथ

जिसने
सतपुड़ा के जंगलों में
भूख की शिकायत की न प्यास की

जिसने न छाँह ताकी
न पूछा कितना बाकी है अभी
ठहरने का ठिकाना और चलना

जलना इसीलिए
उस दिन कितना
सहज हो गया था

सूरज हो गया था उस दिन
मेरे लिए ठंडा
चंद्रमा की तरह !

 


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